( तर्ज - आया हूँ दरबार तुम्हारे ० ]
मैं हूँ खसखस किस गलियों का ,
जरा भरोसा रखो न मुझपर
नहीं तो होगा
नाहक धोखा || टेक ||
जिसने अपना जीवन जगके ,
सेवा में ही आखिर फूंका ।
उससे ही तो दुनियाँ सुधरी ,
सुना नहीं , यह आँखों देखा || १ ||
जो आये समझायें पोथी ,
पंथ बनाया अपना बाँका ।
चले गये फिर ज्यों के त्यों ही ,
रहा जमाना योंही झाँका ॥ २ ॥
अचरज एकही मिला है हमको ,
दुनियाँ गाये नाम उन्हींका |
पर सुधरा नही मानव जीवन ,
झगडा बढ़ा और ' मैं तू ' का ॥ ३ ॥
तुम मोटे की हम मोटा है
ठाकुरद्वार किसीका ?
जिसने लूटी जनता ज्यादा ,
ऊँचा नाम बढा है उनका || ४ ||
भजन - पूजन तो सभी बनायें ,
लोभ बना नही नेक किसीका ।
स्वारथ खातिर माला - कण्ठी ,
बिन स्वारथ सबकोही फूँका ॥ ५ ॥
सबका निकला यही दिवाला ,
बस ना बसा अभी तक किसका ।
तुकड्यादास कहे , सब सुनते ;
पर नहीं नाम कहाँ करनेका ।। ६ ।।
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